Alaukik Shaktiyan

ज्योतिष ,तंत्र ,कुण्डलिनी ,महाविद्या ,पारलौकिक शक्तियां ,उर्जा विज्ञान

ब्रह्मरंध्र का रहस्य

कुंडलिनी और ब्रह्मरंध्र [सहस्त्रार ]

========================

          शिर के मध्य से (ब्रह्मरंध्र) में 1 हजार पंखुड़ियों का कमल है उसे ही सहस्रार चक्र कहते हैं |उसी में ब्राह्मी शक्ति या शिव का वास बताया गया है |यहीं आकर कुण्डलिनी शिव से मिल गई है। इसे आत्मा का स्थान, सूत्रात्मा धाम आदि कहते हैं। यहीं से सारे शरीर की गतिविधियों का उसी प्रकार संचालन होता है जिस प्रकार पर्दे में बैठा हुआ कलाकार उँगलियों को गति दे-देकर कठपुतलियों को नचाया करता है। विराट् ब्रह्माण्ड में हलचल पैदा करने वाली सूत्र शक्ति और विभाग इस सहस्रार कमल के आसपास फैल पड़े हैं। यहीं अमृत पान का सुख, विश्व-दर्शन संचालन की शक्ति और समाधि का आनन्द मिलता है। यहाँ तक पहुँचना बड़ा कठिन होता है। अनेक साधक तो नीचे के ही चक्रों में रह जाते हैं उनमें जो आनन्द मिलता है उसी में लीन हो जाते हैं। इसलिये कुण्डलिनी साधना द्वारा मिलने वाली प्रारम्भिक सिद्धियों को बाधक माना गया है। जिस प्रकार धन-वैभव ऐश्वर्य और सौंदर्यवान युवती पत्नियों का सुख पाकर मनुष्य संसार को ही सब कुछ समझ लेता है उसी प्रकार कुण्डलिनी का साधक भी बीच के ही छः चक्रों में दूर दर्शन, दूर श्रवण, दूसरों के मन की बात जानना, भविष्य दर्शन आदि अनेक सिद्धियाँ पाकर उनमें ही आनन्द का अनुभव करने लगता है और परम-पद का लक्ष्य अधूरा ही रह जाता है।

सहस्रार चक्र में पहुँच कर भी साधक बहुत समय तक उस पर स्थिर नहीं रह पाते हैं। वह साधक की आन्तरिक और आध्यात्मिक शक्ति तथा साधना के स्वरूप पर निर्भर है कि वह सहस्रार में कितने समय तक रहता है उसके बाद वह फिर निम्नतम लोकों के सुखों में जा भटकता है पर जो अपने सहस्रार को पका लेते हैं वह पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त कर अनन्त काल तक ऐश्वर्य सुखोपभोग करते हैं।

सहस्रार दोनों कनपटियों से 2-2 इंच अन्दर और भौहों से भी लगभग 3-3 इंच अन्दर मस्तिष्क के मध्य में “महाविवर” नामक महाछिद्र के ऊपर छोटे से पोले भाग में ज्योति-पुँज के रूप में अवस्थित है। कुण्डलिनी साधना द्वारा इसी छिद्र को तोड़ कर ब्राह्मी स्थिति में प्रवेश करना पड़ता है इसलिये इसे “दशम द्वार” या ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं। ध्यान बिन्दु उपनिषद् में कहा है-

मस्तकेमणिवद्भिन्नं यो जानाति स योगवित्।

तप्तचामीकराकारं तडिल्लेखेव विस्फुरत्॥(46)

अर्थात्-मस्तक में जो मणि के समान प्रकाश है जो उसे जानते हैं वहीं योगी है। तप्त स्वर्ण के समान विद्युत धारा-सी प्रकाशित वह मणि अग्नि स्थान से चार अंगुल ऊर्ध्व और मेढ़ स्थान के नीचे है |इस स्थान पर पहुँचने की शक्यों का वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कहा है-तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारी भवति” अर्थात् वह परम विज्ञानी, त्रिकालदर्शी और सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है वह चाहे जो कुछ करे उसे कोई पाप नहीं होता। उसे कोई जीत नहीं सकता।

               ब्रह्मरंध्र एक प्रकार से जीवात्मा का कार्यालय है |इस दृश्य जगत में जो कुछ है और जहाँ तक हमारी दृष्टि नहीं पहुँच सकती उन सबकी प्राप्ति की प्रयोगशाला है। भारतीय तत्त्वदर्शन के अनुसार यहाँ 17 तत्त्वों से संगठित ऐसे विलक्षण ज्योति पुँज विद्यमान् हैं जो दृश्य जगत में स्थूल नेत्रों से कहीं भी नहीं देखे जा सकते। समस्त ज्ञानवाहक सूत्र और बात नाड़ियाँ यहीं से निकल कर सारे शरीर में फैलती हैं। सूत्रात्मा इसी भास्कर श्वेत दल कमल में बैठा हुआ चाहे जिस नाड़ी के माध्यम से शरीर के किसी भी अंग को आदेश-निर्देश और सन्देश भेजता ओर प्राप्त करता रहता है। वह किसी भी स्थान में हलचल पैदा कर सकता है किसी भी स्थान की बिना किसी बाध्य-उपकरण के सफाई ओर प्राणवर्धा आदि, जो हम सब नहीं कर सकते वह सब कुछ कर सकता है। यह सब ज्योति पुञ्जों के स्स्रण आकुंचन-प्रकुञ्चन आदि से होता है। नाक, जीभ, नेत्र, कर्ण, त्वचा इन सभी स्थूल इन्द्रियों को यह प्रकाश-गोलक ही काम कराते हैं और उन पर नियन्त्रण सहस्रारवासी परमात्मा का होता है। ध्यान की पूर्वावस्था में यह प्रकाश टिमटिमाते जुगनू चमकते तारे, चमकीली कलियाँ, मोमबत्ती, आधे या पूर्ण चन्द्रमा आदि के प्रकाश-सा झलकता है। धीरे-धीरे उनका दिव्य रूप प्रतिभासित होने लगता है उससे स्थूल इन्द्रियों की गतिविधियों में शिथिलता आने लगती है और आत्मा का कार्य-क्षेत्र सारे विश्व में प्रकाशित होने लगता है।

  सामान्य व्यक्ति को केवल अपने शरीर और सम्बन्धियों तक ही चिन्ता होती है |  पर योगी की व्यवस्था का क्षेत्र सारी पृथ्वी, और दूसरे लोकों तक फैल जाता है | उसे यह भी देखना पड़ता है कि ग्रह-नक्षत्रों की क्रियायें भी तो असंतुलित नहीं हो रही। स्थूल रूप से इन गतिविधियों से पृथ्वी वासी भी प्रभावित होते रहते हैं इसलिये अनजाने में ही ऐसी ब्राह्मी स्थिति का साधक लोगों का केवल हित संपादित किया करता है। उसे जो अधिकार और सामर्थ्य मिली होती हैं वह इतने बड़े उत्तरदायित्व को संभालने की दृष्टि से ही होती है। वैसे वह भले ही शरीरधारी दिखाई दे पर उसे शरीर की सत्ता का बिलकुल ज्ञान नहीं होता। वह सब कुछ जानता, देखता, सुनता और आगे क्या होने वाला है वह सब पहचानता है।

विज्ञानमय कोष और मनोमय कोष के अध्यक्ष मन और बुद्धि यहीं रहते हैं और ज्ञानेन्द्रियों से परे दूर के या कहीं भी छिपे हुए पदार्थों के समाचार पहुँचाते रहते हैं। आत्म-संकल्प जब चित्त वाले क्षेत्र से बुद्धि क्षेत्र में पदार्पण करता है तब दिव्य दृष्टि बनती है और वह आज्ञा चक्र से निकल कर विश्व ब्रह्माण्ड में जो अनेक प्रकार की रश्मियाँ फैली हैं उनसे मिलकर किसी भी लोक के ज्ञान को प्राप्त कर लेती है। विद्युत तरंगों के माध्यम से जिस प्रकार दूर के अन्तरिक्ष यानों को पृथ्वी से ही दाहिने-बायें (ट्रीवर्स) किया जा सकता है। जिस प्रकार टेलीविजन के द्वारा कहीं का भी दृश्य देखा जा सकता है उसी प्रकार बुद्धि और संकल्प की रश्मियों से कहीं के भी दृश्य देखे जाना या किसी भी हलचल में हस्तक्षेप करना मनुष्य को भी सम्भव हो जाता है। मुण्डक और छान्दोग्य उपनिषदों में क्रमशः खण्ड 2 और 9 में इन साक्षात्कारों का विशद वर्णन है और कहा गया है-हिरण्यभये परेकोणे विरजं ब्रह्म निष्फलं, तच्छुत्रं ज्योतिषाँ ज्योति तद् परात्मनो बिदुः” अर्थात् आत्मज पुरुष इस हिरण्मयं कोष में शुभ्रतम ज्योति के रूप में उस कला रहित ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं |…………………………………………………………..हर-हर महादेव


Discover more from Alaukik Shaktiyan

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Latest Posts