आध्यात्मिक /पारलौकिक प्राप्तियों के मार्ग
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वैदिक दर्शन
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समस्त आध्यात्मिक जगत संयम ,ब्रह्मचर्य ,और कठोर ताप का उपदेश देते हैं |भैरवी विद्या भोग में मुक्ति और सिद्धि की बात करती है |दोनों में से सत्य क्या है |यह प्रश्न अक्सर मष्तिष्क में उठ सकते हैं |इसका उत्तर जानने के लिए इस रहस्य को समझना चाहिए |आध्यात्मिक प्राप्तियों के दो मार्ग हैं ,वैदिक और शैव |इन दोनों के दर्शन एक दुसरे के सर्वथा विपरीत हैं .साधनाओं के सूत्र भी |
वैदिक ऋषियों ने सृष्टि का सत्य तलाश करते करते यह ज्ञात किया की ,यह सृष्टि परमात्मा रुपी तत्व की धाराओं से बना एक ऊर्जा भंवर है जो एक ऊर्जा परिपथ बना रहा है ,और उसने अपने ही जैसे परिपथों की उत्पत्ति करते हुए ,खोल पर खोल चढ़ाकर विशालतम रूप धारण कर लिया है |जीव जो अनुभूत करता है वह उसकी इन्द्रियों द्वारा भेजे गए संकेत हैं |इन्द्रियाँ सत्य को अनुभूत करने में अक्षम हैं |प्रत्येक जीव की इन्द्रियों की क्षमता भिन्न भिन्न होती है ,इसलिए उनकी अनुभूतियाँ भी भिन्न भिन्न होती है |इस प्रकार यह एक ही प्रकृति सभी को अपने अपने अनुसार अनुभूत होती हैं और वे उसी के अनुरूप भोग करते हैं |किन्तु सत्य तो यह है की न कुछ बन रहा है ,न बिगड़ रहा है ,सर्वत्र तत्व की धाराएं बह रही हैं और इन्ही में जीव बन रहे हैं और नष्ट हो रहे हैं |सांसारिक अनुभूतियाँ इन जीवों के लिए हैं |परमतत्व के सापेक्ष तो केवल परमतत्व ही है |यह वैदिक अवधारणा है |
यह सत्य जानते ही उन्होंने कहा की यह प्रकृति एक मिथ्या उत्पत्ति है |यह परमात्मा की लीला है और समस्त जीव अपनी अपनी अनुभूतियों के संसार में विचरण कर रहे हैं |सबका संसार अलग अलग है ,पर इनमे से एक की भी अनुभूति इस प्रकृति के सत्य को अनुभूत करने में सक्षम नहीं है |अतः इस मिथ्या संसार को भोगने की कामना निरर्थक है |इस कामना के कारण ही हम बार बार जन्म लेते हैं ,इसलिए कामनाओं का त्यागकर जन्म मरण के चक्र से मुक्ति का प्रयास ही जीवन का चरम उद्देश्य है |इस मुक्ति के लिए आवश्यक है की हम संसार के भोगों से मन हटाकर ध्यान उस परमात्मा में लगाएं |संयम और कठोर व्रत से मन को भोगों से विमुख करें और आहार-व्यवहार ,दिनचर्या एवं विचारों
में पवित्रता बनाए रखें |
वैदिक मान्यता या अवधारणा या पद्धति में सांसारिक गृहस्थों के लिए, वे देवताओं का आवाहन यज्ञ द्वारा करते थे ,जिसमे धरती के चुम्बकीय बलों ,समिधाओं से प्राप्त अग्नि और उस अग्नि में हवन किये जा रहे द्रव्यों का प्रभाव होता था ,जिसे मंत्र या मानसिक भाव शक्तिशाली बना देते थे ,पर भोगों के त्याग का उपदेश गृहस्थों के लिए भी था |रति केवल संतानोत्पत्ति के लिए आवश्यक मानी जाती थी |
इस जीवन दर्शन के कारण इनके पूजा पाठ ,सिद्धि -साधनाओं में सर्वत्र संयम और व्रत के कठोर नियमो का समावेश है |इनका सूत्र है की भोगों में लिप्त मन कभी उच्च उद्देश्य के प्रति एकाग्र नहीं होगा |मानसिक पवित्रता के बिना एकाग्रता संभव नहीं है और इसके बिना तो भौतिक फल भी प्राप्त नहीं होते |आध्यात्मिक सिद्धियाँ किस प्रकार प्राप्त हो सकती हैं ?,,,यह वैदिक दर्शन है ,जिसे सामान्य लोग मानते हैं और एक अवधारणा बनाकर भयभीत रहते हैं |जबकि इन्हें तर्क की कसौटी पर भी कसा जाना चाहिए और दुसरे पक्ष को भी सुनना चाहिए |
शैव दर्शन
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शैव दर्शन का कथन है की यह सत्य है की यह सृष्टि सदाशिव नामक अमृत तत्व से उत्पन्न हुई है और इसमें उसके सिवा और कुछ नहीं है ,किन्तु इसमें एक अन्य भी है |वह है शक्ति जो सदाशिव में नहीं है |भले ही यह शक्ति उन्ही में उन्ही के कारण उत्पन्न होती है ,पर इस संसार में उसका अस्तित्व है और उनमे नहीं है |
हम इस सृष्टि की ही उपज हैं और इसी का एक अंश हैं |हमारा शरीर सृष्टि का ही एक प्रतिरूप है ,क्योकि जो उर्जा संरचना सृष्टि की है ,वाही इसकी इकाइयों की है ,इसमें भेद नहीं है |यदि सृष्टि को मिथ्या मान लेते हैं ,तो हम भी मिथ्या हैं |स्वप्न का सुख दुःख क्या ,जीवन मरण क्या ?मुक्ति भी उसके लिए क्या महत्त्व रखती है |जब सब मिथ्या है तो फिर मुक्ति भी मिथ्या हो सकती है फिर उसके लिए सबका त्याग क्यों ?
शरीर प्राप्त होने पर ही ज्ञान है और मुक्ति है या सिद्धि आदि उपलब्धियां हैं |दुर्बल ,अशक्त और रोगयुक्त शरीर में आत्मा स्वयं व्याकुल रहती है |वह मानसिक एकाग्रता कैसे रखेगी ?.शून्य में मन को स्थिर करके वैरागी हो जाना सबसे संभव नहीं है |यह तो सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद ही होता है |फिर प्रकृति के अपने नियम हैं |इन नियमों में परमात्मा अर्थात सदाशिव भी बंधे हैं ,क्योकि ये नियम उनसे ही उत्पन्न होते हैं और इन नियमो से ही ये सृष्टि उत्पन्न ,शासित एवं पोषित होती है |ये नियम हम पर भी लागू हैं |उन्हें निरुद्ध करना दुह्साध्य है |आप भोजन में रसगुल्ला खाना छोड़ सकते हैं ,पर मन का क्या करेंगे |
एक सशक्त शरीर ही इस विश्व में कुछ भी प्राप्त कर सकता है ,चाहे वह ज्ञान ही क्यों न हो |शरीर को स्वस्थ तभी रखा जा सकता है ,जब हम आवश्यकता के अनुसार हर प्रकार के भोगों का उपभोग करें |वैरागी बनकर ,संसार के भोगों को त्याग करके कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता |अनुभूतियों को केन्द्रित करके शून्य कर देना असंभव है |प्रकृति के प्रतिकूल होकर इसकी प्रवृत्ति को नष्ट करने का प्रयास इन कृत्रिम नियमों से पतित करता है और साधक अपराध बोध का शिकार हो जाता है |इसके साथ ही वह नरक में गिरता है क्योकि जिसे हम पाप कहते हैं वह अपराध बोध ही है |जन्म-जन्मान्तर में मनुष्य की बुद्धि का स्वाभाविक विकास होता है |यही इस जन्म में प्रस्फुटित होता है |इस स्वाभाविक विकास क्रम में उपदेशों की कोई सार्थकता नहीं रह जाती |
इसका अर्थ यह है की जन्म-जन्मान्तर से जो ज्ञान और संस्कार के साथ हमें एक विकसित शरीर प्राप्त होता है ,जो सदाशिव का वरदान है |यह एक ऐसा यन्त्र है ,जिसकी क्षमताएं असीमित हैं |इस यंत्र की ऊर्जा धारा को समझकर यदि इसे अधिक उर्जावान बनाया जाए और भैरवी विद्या या कुंडलिनी तंत्र की विधियों [तकनीकियों] को अपनाया जाए तो सभी तरह की शक्तियों की प्राप्ति के साथ भोग करते हुए मुक्ति प्राप्त हो जाती है |ज्ञान और शक्ति सीढ़ी डर सीढ़ी प्राप्त होती है |एक दिन उस सदाशिव का ज्ञान हो जाता है और सारा शक्ति तंत्र परिपथ अपने सम्पूर्ण सत्य के साथ अनुभूत होने लगता है |तकनिकी आधारित प्रकृति के अनुकूल विधियों के कारण और भोग प्रधान होने के कारण इसकी विधियों एवं मन्त्रों के प्रति एकाग्रता स्वयं प्राप्त हो जाती है |इतनी एकाग्रता की सामान्यतया साधकों को इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए वर्षों अभ्यास करना होता है और इसमें भी बहुत कम ही सफल होते हैं |यह शैव दर्शन है जो प्रकृति के अनुकूल होने के कारण सफल जल्दी हो जाता है |……………………………………………………………………..हर-हर महादेव
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