Alaukik Shaktiyan

ज्योतिष ,तंत्र ,कुण्डलिनी ,महाविद्या ,पारलौकिक शक्तियां ,उर्जा विज्ञान

तंत्र और योग साधना में मुद्रा

मुद्रा प्रदर्शन ::साधना-उपासना में आवश्यक है 

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      तंत्र-शास्त्र भारतवर्ष की बहुत प्राचीन साधना -प्रणाली है । इसकी विशेषता यह बतलाई गई है कि इसमें आरम्भ ही से कठिन साधनाओं और कठोर तपस्याओं का विधान नहीं है, वरन् वह मनुष्य के भोग की तरह झुके हुए मन को उसी मार्ग पर चलाते हुए धीरे-धीरे त्याग की ओर प्रवृत्त करता है । इस दृष्टि से तंत्र को ऐसा साधन माना गया कि जिसका आश्रय लेकर साधारण श्रेणी के व्यक्ति भी आध्यात्मिक मार्ग में अग्रसर हो सकते हैं । यह सत्य है कि बीच के काल में तंत्र का रूप बहुत विकृत हो गया और इसका उपयोग अधिकांश मे मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि जैसे जघन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाने लगा, पर तंत्र का शुद्ध रूप ऐसा नहीं है । उसका मुख्य उद्देश्य एक-एक सीढ़ी पर चढ़कर आत्मोन्नति के शिखर पर पहुँचना ही है । तंत्र-शास्त्र में जो पंच-प्रकार की साधना बतलाई गई है, उसमें मुद्रा साधन बड़े महत्व का और श्रेष्ठ है । मुद्रा में आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि योग की सभी क्रियाओं का समावेश होता है । मुद्रा की साधना द्वारा मनुष्य शारीरिक और मानसिक शक्तियों की वृद्धि करके अपने आध्यात्मिक उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है । मुद्राएँ अनेक हैं । घेरण्ड संहिता में उनकी संख्या २५ बतलाई गई है, पर शिव-संहिता में उनमें से मुख्य मुद्राओं को छांट कर इसकी ही गणना कराई है |

‍       तंत्र मार्ग में कुण्डलिनी शक्ति की बड़ी महिमा बतलाई गई है । इसके जागृत होने से षटचक्र भेद हो जाते हैं और प्राणवायु सहज ही में सुषुम्ना से बहने लगती है इससे चित्त स्थिर हो जाता है और मोक्ष मार्ग खुल जाता है । इस शक्ति को जागृत करने में मुद्राओं से विशेष सहायता मिलती है ।  II मुदाम कुर्वन्ति देवानं मनासी द्रव्यन्ति च , तस्मान मुद्रा समाख्याता दार्शितव्य कुलेश्वरि II (कुलार्नव तंत्र) … मुद्रा देवताओ के मन को प्रसन्न करती है जिसके परिणाम वो भक्तो के प्रति करुनामय होते है इसीलिए इष्ट मुद्रा का प्रदर्शन करना चाहिए | II.यथा बालस्य अभिनयम दृष्ट्वा दृश्यन्ति मातर , तथा भक्त कृता मुद्रा दृष्ट्वा द्रश्यन्ति देवता II (मेरु तंत्र ) जेसे बालक की लीला / चेष्टा देख माता -पिता आनंदित होते है ऐसे भक्तो की मुद्रा देख देवता प्रसन्न होते है |आत्मा बोध के रक्षण और उसकी पुष्टि के लिए तथा आत्मा और मन की तुष्टि के लिए… मुद्रा का ज्ञान और अनुभति आवश्यक है. |पूजा -पाठ , ध्यान , मत्र – तंत्र – यन्त्र साधना .. सब में मुद्रा के प्रयोग की अनिवार्यता शाश्त्रो में लिखी है |  मंत्र एक परिमाण ( one dimension) , यन्त्र दो परिमाण( two dimension) , मुद्रा तिन परिमाण ( three dimension) होने पर परस्पर सब का घनिष्ट सम्बन्ध है . मुद्रा के उपयोग में जरुरी सावधानी और नियम/ चोकसी वर्तना जरुरी है अन्यथा विपरीत परिणाम आ सकता है |

          पंचमकार में से एक मुख्य अंग मुद्रा है |पंचमकार के पांच अंग ,मांस -मदिरा -मीन -मैथुन और मुद्रा में से मांस [अथवा अन्न ]शरीर का पोषक है ,मीन [अथवा तामसिक पदार्थ ]उत्प्रेरक या उत्तेजक है ,मदिरा ,उन्मत्तता -निडरता -एकाग्रता का कारक है ,मैथुन शारीरिक ऊर्जा का उपयोग और मुद्रा शक्ति का आकर्षण है |पंचमकार के बाकी चारो तत्व शारीरिक ऊर्जा से सम्बंधित हैं जबकि मुद्रा प्रकृति की ऊर्जा का आकर्षण करता है |इसीलिए कहा जाता है की मुद्रा के प्रदर्शन से देवता द्रवित होते हैं |इस कथन के गूढ़ और वैज्ञानिक निहितार्थ हैं |जब मुद्रा प्रदर्शित की जाती है तो उससे विशेष नसों ,अंगों पर दबाव-तनाव अथवा शिथिलता होती है ,फलस्वरूप चक्र विशेष पर विशिष्ट प्रभाव पड़ता है ,शारीर के तत्वों का संतुलन बदलता है जिससे विशेष चक्र अर्थात सम्बंधित देवता के चक्र से अधिक तरंगों का उत्पादन शुरू होता है और वह चक्र अधिक क्रियाशील होता है |चक्र की अधिक क्रियाशीलता और तरंग उत्पादन से प्रकृति में उपस्थित उसी प्रकार की तरंगें और शक्तियां आकर्षित होकर व्यक्ति से जुडती हैं |इसी को कहते है विशेष देवता का विशेष मुद्रा से द्रवित होना और आकर्षित होना | इसलिए मुद्रा प्रदर्शन अवश्य करना चाहिए पूजा -उपासना-साधना के समय | 

          हिन्दू धर्मं , जैन (श्वेताम्बर ) , बौध्ध धर्मं सब में मुद्रा का उपयोग धार्मिक विधि से लेकर ध्यान तक किया हुआ है .अंगुष्ट  … अग्नि तत्व , तर्जनी … वायु तत्व , मध्यमा  … आकाश तत्व , अनामिका …. पृथ्वी तत्व , कनिष्टिका  … जल तत्व का … प्रतिनिधि है.| मुद्रा द्वारा पञ्च प्राण / पञ्च महाभूत के साथ सम्बन्ध होता है | अंगुष्ट और ४ अंगुली के संयोजन से विविध मुद्रा बनती है बिना मुद्रा के किसीभी प्रकार की साधना सफल नहीं होती ऐसा घेरंड संहिता कहती है| मुद्राएँ दो तरह की होती है ,शारीरिक मुद्रा और अँगुलियों की मुद्रा |शारीरिक मुद्रा को आसन भी कहते हैं ,इनका प्रयोग योग का आवश्यक अंग है |योग में इसके साथ अँगुलियों की मुद्रा का भी प्रयोग किया जाता है और शरीर को साधा जाता है |तंत्र में भी दोनों का प्रयोग होता है ,पर अधिकतर अंगुली मुद्रा ही सामान्यतया प्रयोग में ली जाती है |मुद्राओं के प्रयोग से रोग निवारण भी होता है ,और पंच तत्वों को संतुलित भी किया जाता है |………………………………………………………हर-हर महादेव


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