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भैरवी विद्या में नारी

भैरवी विद्या के सूत्र और भैरवी विद्या में नारी 

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                भैरवी विद्या में स्त्री या नारी महामाया का प्रतिरूप है |उस महामाया का जो प्रकृति के रूप में अपने आँचल में प्रत्येक चर अचर को समेटे उसका पालन कर रही है |इस महामाया के अन्दर ही समस्त देवी-देवता ,भूत-पिशाच ,राक्षस -किन्नर और सभी प्रकार की शक्तियां विद्यमान हैं |इसलिए साधना के मध्य नारी ईष्ट के अनुसार मानी जाती है |जैसे यदि हम लक्ष्मी की साधना कर रहे हैं ,तो भैरवी जो नारी साधिका होती है ,लक्ष्मी का ही रूप मानी जाती है |उसकी पूजा अर्चना उसी रूप में होती है |ज्ञातव्य है की भैरवी साधना विभिन्न उद्देश्यों के अनुसार भी की जाती है और तदनुरूप भैरवी भिन्न शक्तियों के रूप में पूजी जाती है |भैरवी विद्या में नारी को दिया गया यह स्वरुप कल्पना नहीं है ,यानी कल्पना के तौर पर नारी को महामाया का रूप नहीं माना गया है ,बल्कि वह वास्तव में महामाया है |इसका प्रमाण भैरवी विद्या का सृष्टि सूत्र है जिसके अनुसार परम शाश्वत,अविनाशी ,शांत तत्व सदाशिव में उनकी ईच्छा से एक सूक्ष्म बिंदु पर एक विस्फोट हुआ जिससे एक भंवर बनी ,जिसके केंद्र में शंक्वाकार घूमती हुई संरचना ऊपर उठी |यह आद्या योनी कही जाती है |इसके प्रतिक्रिया में इसके ऊपर एक उलटी प्रतिकृति उत्पन्न होती है जिस पर विपरीत आवेश होता है ,इसे लिंग कहा गया |दोनों के मिलने से या एक दुसरे के प्रति आकर्षित हो एक दुसरे में समाने से एक ऊर्जा आकृति उत्पन्न होती है जिसमे धन,ऋण और नाभिक ,तीन ऊर्जा बिंदु होते हैं |इन तीन बिन्दुओं से नौ बिन्दुओं का विकास होता है और परिपथ बनता है |

           नारी ऋणात्मक प्रकृति की प्रतिलिपि है |उसका शरीर उस ऋण ऊर्जा के समकक्ष [समान] ऊर्जा से बना है |वह पुरुष के सापेक्ष उसका आधार है |पुरुष की पौरुष शक्ति नारी के लिए है और नारी के बिना पुरुष का पौरुष निरर्थक है |इस प्रकार बिना ऋण के धन का कोई उपयोग नहीं |यह प्राकृतिक नियम है |यही भैरवी विद्या का आधार सूत्र है |नारी इसलिए महामाया है की उसमे प्रकृति के समकक्ष समान गुण हैं |यह प्रकृति ही महामाया है ,जो शिव से उत्पन्न होती है और उसी के लिंगाम्रित से तृप्त होती है |नारी के शीर्ष पर इस अमृत का प्रवाह पुरुष की अपेक्षा कई गुना अधिक होता है |इसका स्वरुप भी पुरुष के शीर्ष पर बनने वाले शिवलिंग से भिन्न होता है |यह भिन्नता नारी के शरीर की ऊर्जा प्रकृति के कारण है |महामाया का रूप होने से नारी में ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियों का निवास होता है |इसलिए भैरवी विद्या में नारी भैरवी साधक के लिए उसकी ईष्ट देवी होती है |उसे संतुष्ट रखना, प्रसन्न करना प्रथम कर्त्तव्य होता है |नारी में संयम अधिक होता है जो उसका प्राकृतिक गुण है |वह जिस भाव में डूबती है उसी में एकाग्र हो जाती है |उसमे शक्ति का अवतरण शीघ्र होता है और उसके माध्यम से पुरुष को शक्ति प्राप्त होती है ,इस कारण उसे देवी कहा जाता है |

             नारी को देखकर पुरुष में शक्ति का संचार होने लगता है |इससे ज्ञात होता है की नारी से संयोग करके वह अपार शक्ति को प्राप्त कर सकता है और उस शक्ति को ईष्ट के रूप में परिवर्तित कर सकता है |इसका प्रमाण संयोग समय असाधारण बल का महसूस होना है |भैरवी विद्या का मुख्य सूत्र यही है |नारी-पुरुष रति से दोनों जितनी चाहे ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं |इस ऊर्जा की मात्रा इतनी होती है की शरीर का सारा ऊर्जा परिपथ कई गुना अधिक गतिशील [क्रियाशील] हो जाता है |उससे ऊर्जा के विभिन्न रूपों की भारी उत्पत्ति होने लगती है |इस ऊर्जा का उपयोग करने पर शक्ति और सिद्धि के साथ ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है |रति से बनाने वाली ऊर्जा को उपयोग न कर पाने से भारी क्षति हो सकती है |बोतल से जिन्न निकालने में बहादुरी नहीं होती ,उसे नियंत्रित करने की क्षमता होनी चाहिए |अन्यथा वह जिन्न ही नष्ट कर डालेगा |इसीलिए भैरवी विद्या में गुरु का महत्व सर्वाधिक है |…………………………………………………………..हर-हर महादेव


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