वन दुर्गा सिद्धि
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तंत्र शास्त्रों की यह विशेषता है की आराध्य देवता की आराधना को सामान्य से अधिक तीव्र और तीव्रतर बनाने के लिए उसके साथ बीज मन्त्रों का संयोजन करने का आदेश करते हैं |आराधक गण भी उसी पद्धति से ईष्टदेव की कृपा प्राप्त कर मंत्र के वास्तविक स्वरुप को देख लेते हैं |इसी से मन्त्रों में विविधता आती है और यथेष्ट लाभ पाने में वे सहकारी बनते हैं |महाविद्या वन दुर्गा के भी अनेक मंत्र हैं ,अनेक साधकों ने उनका दर्शन किया है तथा उनके प्रयोगों को भी प्रस्तुत किया है |वन दुर्गा के दो तरह के न्यास ,विनियोग आदि होते हैं जो भिन्न मन्त्रों के साथ प्रयोग किये जाते हैं |यहाँ हम एक प्रकार के विनियोग ,न्यास आदि बता रहे जो बीज मंत्र के साथ मूल मंत्र के संयोजन में प्रयुक्त होता है |
विनियोग – अस्य श्री महाविद्या वन दुर्गा महा मंत्रस्य ईश्वर ऋषिः पंक्तिश्छ्न्दः अन्तर्यामि नारायण -किरात -रूपेश्वर महाविद्या वनदुर्गा देवता हुँ बीजं ,स्वाहा शक्तिः क्लीं कीलकम मम वनदुर्गा प्रसाद सिद्धयर्थे जपे विनियोगः |
ऋष्यादि न्यास – ईश्वर ऋषये नमः शिरसि पंक्तिश्छन्दसे नमः मुखे अन्तर्यामिनारायण -किरातरूपेश्वर -महाविद्या वनदुर्गादेवताभ्यो नमः हृदये ,हुँ बीजे नमः गुह्ये ,स्वाहा शक्तये नमः पादयो: ,क्लीं कीलकाय नमः नाभौ विनियोगाय नमः सर्वांगे |
कर न्यास -हंसिनी ह्रां अन्गुष्ठाभ्याम नमः शंखिनी ह्रीं तर्जनिभ्याम नमः चकिणी हूँ मध्यमाभ्याम नमः गदिनी ह्रैं अनामिकाभ्याम नमः शूलिनी ह्रौं कनिष्ठिकभ्याम नमः त्रिशूलवरधारिणी ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्याम नमः
हृदयादि न्यास –हंसिनी ह्रां हृदयाय नमः शंखिनी ह्रीं शिरसे स्वाहा चकिणी हूँ शिखायै वषट
गदिनी ह्रैं कवचाय हुँ शूलिनी ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट त्रिशूलवरधारिणी ह्रः अस्त्राय फट
मूल मंत्र — उत्तिष्ठ पुरुषि किं स्वपिषि भयं में समुपस्थितं यदि शक्यमशक्यं वा दुर्गे भगवति तन्मे शमय स्वाहा |
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं हुँ उत्तिष्ठ पुरुषि किं स्वपिषि भयं में समुपस्थितं यदि शक्यमशक्यं वा दुर्गे भगवति तन्मे शमय स्वाहा |
इस उपासना में कन्या पूजन करना अत्यावश्यक है |
वन दुर्गा के ध्यान चार प्रकार के हैं ,जैसी कामना हो वैसा ध्यान किया जाता है |सामान्य ध्यान ,सात्विक ध्यान ,राजस ध्यान अथवा तामस ध्यान |इसके अतिरिक्त मारण आदि कर्मों के प्रतिलोम साधना की विधियों में भी ध्यान की अलग विधि हो जाती है |ध्यान के बाद मंत्र जप किया जाता है |
मंत्र का चार लाख जप करके चावल ,तिल तथा घी के मिश्रण से निर्मित हावी द्वारा जप का दशांश हवं किया जाता है |शास्त्रोक्त वैदिक पद्धति में हवन के बाद तर्पण ,मार्जन और ब्राह्मण भोजन अनुष्ठान के अंग होते हैं |विशेष कामना के अनुष्ठान में वन दुर्गा यन्त्र के आवरण पूजा करके ही मंत्र जप किया जाता है |
वन दुर्गा को महाविद्या भी कहा जाता है अर्थात यह ऐसी देवी हैं जो अपने साधक को समस्त पुरुषार्थ दे सकती हैं |मूल मंत्र में रक्षा की भावना है और वन दुर्गा का स्वरुप कामनापूर्ति करने वाला है अतः यह देवी भौतिक उद्देश्य शीघ्र पूरी करती हैं |इनका सम्बन्ध वानस्पतिक ,वन -जंगल सम्बन्धित ,नदी -पहाड़ सम्बन्धित वस्तुओं -पदार्थों और स्थानों से होता है अतः इनके मंत्र का प्रभाव चमत्कारी गुटिका अर्थात डिब्बी के साथ बहुत अधिक क्रियाशील होता है |आपको ज्ञात है की चमत्कारी डिब्बी में २५ तरह के तंत्रोक्त पदार्थ हैं जिनमे वानस्पतिक ,सामुद्रिक वस्तुओं के साथ ही जन्तुओं से सम्बन्धित पदार्थ भी हैं और इनमे से अधिकतर चामुंडा ,दुर्गा ,काली ,लक्ष्मी और गणेश से सम्बन्धित हैं अतः वन दुर्गा की साधना में चमत्कारी डिब्बी चमत्कार करती है तथा साधना की उर्जा को अपने में समेटती तो जाती ही है साधना की शक्ति को वातावरण में बहुत अधिक विस्तार और तीव्रता देती है जिससे साधक की साधना का कई गुना लाभ बढ़ जाता है |स्थायी हुई ऊर्जा वर्षों वर्ष बनी रहती है |
जिन जिन कार्यों की सिद्धि के लिए साधक वन दुर्गा मंत्र का दस हजार जप करता है ,वे कार्य असाध्य होने पर भी भगवती की कृपा से साध्य होकर शीघ्र ही साधक को अपना फल प्रदान करते हैं |मंत्र जप करने वाला किसी तालाब या नदी में नाभि बराबर जल में खड़ा होकर सूर्य की ओर मुख करके मंत्र का १०८ बार नित्य जप करे तो उसके अभीष्ट की सिद्धि तथा लक्ष्मी की प्राप्ति होती है |ग्रह ,अभिचार तथा आपदाओं से मुक्ति एवं सर्व समृद्धि की प्राप्ति के लिए साधक को शुंग अर्थात अग्रभाग सहित वट की समिधा अथवा चन्दन की समिधा सहित वट की समिधा से दस हजार हवन करना चाहिए |रविवार से शुरू करके आक की समिधाओं द्वारा प्रतिदिन एक हजार आहुतियों द्वारा हवन करे |देवी की कृपा से दस दिनों में अथवा इससे पहले ही साधक की अभीष्ट सिद्धि हो जाएगी |शुद्ध खदिर अर्थात खैर की छिलकायुक्त समिधाओं के एक एक खंड द्वारा पृष्ठ भाग की तरफ से तीन दिनों अथवा सात रात्रियों तक प्रतिदिन सहस्त्र आहुतियों द्वारा हवन करने से साधक को अपने बहिश्त की प्राप्ति होती है |
एक सौ आठ बार वन दुर्गा मंत्र द्वारा अभिमंत्रित चिता भष्म को जिस किसी के सर पर डाल दिया जाय वह मनुष्यों अर्थात समाज द्वारा तिरस्कृत ,विद्वेषित होकर एक स्थान से दुसरे स्थान को इधर उधर भटकता रहता है |शत्रु के पैरों की धुल युक्त कारस्कर के आठ हजार पत्तों द्वारा जो वायु के झोंकों से स्वयं ही जमीन पर गिरें हों ,हवन करने से शीघ्र ही शत्रु का उच्चाटन हो जाता है |विष वृक्ष की लकड़ी से शत्रु की पुतली बनाकर उसके नाम से प्रतिष्ठा करके उस पुतली को गर्म पानी में डालकर वन दुर्गा मंत्र का जप करने से वह शत्रु पागल हो जाता है |सूर्य मंडल में स्थित हाथों में तलवार तथा खेटक धारण किये हुए तथा क्रोधित मुखाकृति वाली वन दुर्गा का ध्यान करके यदि साधक मन्त्र का जप करे तो वह देवी शीघ्र ही शत्रुओं को मार डालती है |इसी प्रकार अपने दोनों हाथों में बाण तथा धनुष धारण किये हुए तथा सिंह पर सवार वन दुर्गा का ध्यान करके जप करने से शीघ्र ही शत्रुओं का उच्चाटन हो जाता है |
कमल द्वारा वन दुर्गा मंत्र से हवन करने से राजा ,उत्पल द्वारा हवन करने से नृप पत्नी ,कुमुदों के हवन से ब्राह्मण ,कह्लार पुष्पों के हवन से वैश्य ,लवण के द्वारा कवन करने से शूद्र तथा जाती पुष्पों के द्वारा हवन करने से पूरा ग्राम साधक के वशीभूत होता है |यह सब वन दुर्गा के अत्यंत सामान्य प्रयोग और लाभ हैं ,विशेष प्रयोगों से सभी कामनाएं पूर्ण किये जा सकते हैं ,हम यहाँ विशेष प्रयोग इसलिए नहीं दे रहे चूंकि उनमे तकनिकी जानकारी पूर्ण होनी चाहिए अन्यथा उर्जा असंतुलन से विक्षोभ की सम्भावना होती है |विशेष प्रयोगों में शत्रु सेना उच्चाटन ,मारण ,उपद्रव प्रयोग ,पुत्र प्रदान करने का प्रयोग ,सौभाग्यवर्धक ,सर्व सम्पत्ति तथा पुष्टि प्रदान करने वाले प्रयोग ,राजाओं को पुनः राज्य प्राप्ति में सहायक प्रयोग ,रोग शान्ति प्रयोग ,चिरकाल वशीकरण प्रयोग ,राष्ट्र ,नगर ,ग्राम रक्षा प्रयोग ,ब्रिहिवान ,सम्पदावान ,स्वर्णसम्पत्तिवान ,रिद्धिवान ,रत्नवान ,दीर्घ वान ,तथा ऐश्वर्यवान बनने के प्रयोग हैं |वन दुर्गा का साधक इनके मंत्रों से सबकुछ पा सकता है |
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