।।दीक्षा के प्रकार (शक्तिपात करने की विधियॉं)।।
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उपास्य देवता, उपासक ‘शिष्य’ की रूचि, गुरू-शिष्य की पात्रता, उपासना पद्धति की भिन्नता, अधिकारभेद, साधना विधियों की प्रथकता तथा देश-काल कीपरिस्थितियों की अनुरूपता के कारण दीक्षा की विभिन्न विधियों का नामकरण हुआ है। दीक्षा विशेष के नाम से ही दीक्षा की विधि का आभास मिल जाता है। शास्त्रों में नाना प्रकार की दीक्षाविधियों का उल्लेख मिलता है। यथा-
(1) स्पर्श (स्पार्शिकी) दीक्षा। (2) चाक्षुसी (दृष्टि) दीक्षा।(3) वाचिकी (शब्द) दीक्षा (4) मानसी (ध्यान) दीक्षा (5)आणवी दीक्षा (6) मान्त्री दीक्षा (7) शक्ति दीक्षा (8)शाम्भवी दीक्षा (9) अभिसेचिका दीक्षा (10) स्मार्ती दीक्षा (11) योग दीक्षा
इसके अतिरिक्त भी जिन 4-प्रकार की दीक्षाओं का उल्लेख किया गया है उनके नाम हैं-कलावती दीक्षा, क्रियावती दीक्षा, वेधमयी दीक्षा तथा वर्णमयी दीक्षा। किसी भी विधिसे सद्गुरू द्वारा प्राप्त दीक्षा शिष्य को भोग-मोक्ष प्रदान करने में सहायक होती है।
तंत्र शास्त्र बताते हैं कि जिस प्रकार पक्षिणी, कछवी तथा मछली, अपने बच्चों का पालन-पोषण करती है उसी प्रकार सद्गुरू भी शिश्य को स्पर्श करके, उसके ऊपर दृष्टिडालकर तथा अपने ध्यान (संकल्प) से अपनी आध्यात्मिक शक्ति को शिष्य में प्रविष्ट कराके उसको आत्मसाक्षात्कार करा देते हैं।
भगवत्पाद् श्री शंकराचार्य ने सद्गुरू की महत्ता का वर्णन करते हुए अपने ग्रन्थ ‘शतश्लोकी’ के प्रथम श्लोक में ही लिख दिया है- (इस संसार में शक्तिपात करके शिष्य को ब्रहमज्ञान का उपदेश देने वाले सद्गुरू की उपमा देने के लिए कुछ भी विद्यमान नहीं है। गुरू तो पारसमणि से भी उच्चकोटि के होते हैं क्योंकि पारसमणि स्पर्श करके लोहे को सोना तो बना देता है परन्तु पारसमणि नहीं बना सकता जबकि श्री गुरूदेव शिष्य को अपना ही रूप दे डालते हैं-अपना ही जैसा बना देते हैं।)
हम आपको कुछ मुख्य दीक्षाओं के बारे में थोड़ा और विस्तार से बताते हैं जिनके द्वारा गुरु अपने शिष्य को ज्ञान और शक्ति प्रदान करते हैं |
(1) स्पर्श दीक्षा :
(भगवान शंकर मां-पार्वती को बताते हैं कि हे पार्वती! स्पर्शदीक्षा उसी प्रकार की है जिस प्रकार एक पक्षिणी अपने पंखों के स्पर्श से उनके ऊपर बैठकर अपने बच्चों का लालन-पालन करती है। जब तक बच्चे अण्डों से बाहर नहीं निकलते तब तक वह अण्डों के ऊपर बैठी रहती है। अण्डों से बाहर निकल जाने के बाद भी जब तक बच्चे छोटे रहते हैं उन्हें अपने पंखों से ढककर रखती है।)
स्पर्श दीक्षा की विधि से शक्तिपात करके शिष्य का उद्धार करने के अनेकों दिव्य उदाहरण शास्त्रों-पुराणों में उपलब्ध है। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में वर्णन किया गया है कि किस प्रकार भगवान दत्तात्रेय जी द्वारा राजा यदु को आलिंगन (स्पर्श) करके आत्मबोध कराया गया था। इस घटना का सुन्दर वर्णन सन्त एकनाथ जी ने अपने ग्रन्थ ‘एकनाथी भागवत’ में करते हुए बताया है कि ‘जब भगवान श्री दत्तात्रेय जी ने राजा यदु को प्रेमपूर्वक गले लगाया तो दोनों की – स्थिति एकाकार हो गई। राजा यदु का जीवभाव तथा अंहकार नष्ट हो गया। वह प्रगाढ़ प्रेमसागर में डूब गए। समस्त संकल्प-विकल्प नष्ट हो गए। इस प्रकार वह अपने गुरू के स्पर्शमात्र से ही आत्मसाक्षात्कार कर कृतार्थ हो गए।
(2) चाक्षुषी दीक्षा :
दीक्षा की इस विधि में गुरू द्वारा शिष्य को अपने सामने बिठाकर अत्यन्त करूणाभाव से उसके ऊपर अपनी अमृतपूर्ण दिव्यदृष्टि डालते हुए परमात्मा से उसके आत्मोद्धार हेतु प्रार्थना की जाती है। इस दीक्षा की महिमा का वर्णन करते हुए आदि शंकराचार्य लिखते हैं-
(श्री गुरू की करूणापूर्ण दिव्य दृष्टि पड़ते ही शिष्य में ”मैं ब्रह्म हूँ” का भाव उत्पन्न हो जाता है तथा वह शोकरहित एवं भय-भ्रम रहित होकर जीवन्मुक्त की पदवी प्राप्त कर लेता है।)
(3) वाचिकी दीक्षा (शब्द दीक्षा) :
श्री गुरू द्वारा अपने शिष्य को सामने बिठाकर जीवात्मा-परमात्मा, ब्रह्म-माया, प्रकृतिपुरूष एवं जीव-जगत सम्बन्धी विशद ज्ञानोपदेश दिया जाता है। उसे सुनकर तथा सम्मुख उपस्थित सतगुरू रूपी तपोपुंज से जो दिव्य-आध्यात्मिक तरेंगे उत्पन्न होती है उनका स्पर्श पाकर सुयोग्य शिष्य को अलौकिक अनुभव होने लगते हैं। इस विधि से होने वाले शक्तिपात को ही वाचिकी दीक्षा कहा गया है। गुरूदेव की ऐसी दिव्य-वाणी को सुनकर ही शिष्य को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध हो जाता है तथा शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति हो जाने से उसका साधनामार्ग प्रकाशमय हो जाता है।
(4) मानसी (शब्द दीक्षा) तथा (संकल्प) दीक्षा :
भगवान शंकर मॉं पार्वती को बताते हैं कि हे पार्वती! जिस प्रकार मछली अपने बच्चों का पालन-पोषण ध्यान मात्र से ही करती है उसकी प्रकार ध्यान दीक्षा भी मन के संकल्प से ही होती है। श्री गुरूद्वारा शिष्य को स्पर्श करके दिव्य दृष्टि से देखने तथा शिष्य के प्रति सत्यसंकल्प पूर्वक ध्यान करने से मानसी दीक्षा सम्पन्न हो जाती है तथा शिष्य कृतार्थ हो जाता है।
(5) आणवी दीक्षा :
इस विधि से दीक्षाप्राप्ति के अन्तर्गत सद्गुरू द्वारा शिष्यको उपास्य देवी का मंत्र, उसके पूजन-अर्चन की विधि,आसन, मुद्रा, देवी का ध्यान तथा जप के माध्यम सेउपासना करने का निर्देश दिया जाता है। सुयोग्य शिष्यगुरूवाक्य तथा वेदवाक्यों का श्रवण, मनन तथानिदिध्यासन करते हुए आत्मसाक्षात्कार कर लेता है।
।।दीक्षा प्राप्ति हेतु गुरू की शरण में उपस्थित होना।।
शास्त्रों में उल्लेख किया गया है कि जिज्ञासु व्यक्ति कोशिष्यत्व ग्रहण (दीक्षा प्राप्ति) करने हेतु श्री गुरू के समक्षउपस्थित होने से पहले सतत् अभ्यास करते हुए विभिन्नआघ्यात्मिक विचारों एवं भावनाओं को हृदंयगम करनापड़ता है। इस विषय पर वेदान्त सूत्र का प्रथम सूत्र’अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ स्पष्ट रूप से बताता है कि अबइसके पश्चात् ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा (इच्छा)उत्पन्न होती है। जिन भावनाओं को हृदयंगम एवंअंगीकृत करने के पश्चात् ब्रह्मजिज्ञासा की पात्रताउत्पन्न होती है उनमें से प्रमुख है:-
(1) नित्या-नित्य वस्तु विवेक : इस संसार में कौन सी वस्तु नित्य (अमर) है और कोन सी वस्तु अनित्य(क्षणभंगुर/अस्थिर)। ब्रह्म (आत्मा) नित्य है। माया(संसार) अनित्य है।
(2) इहामुत्र फल भोग विराग : यह ज्ञात हो जाना कि न केवल पृथ्वीलोक वरन् स्वर्गादि उच्च लोकों के समस्त भोगेश्वर्य क्षणिक हैं। इनके प्रति वैराग्य भाव उत्पन्न हो जाना है।
(3) शम-दमादि 6-प्रकार की साधन-सम्पत्ति को अर्जितकर लेना :
इस विषय पर योग के 8 अंग नामक शीर्षक के अन्तर्गत पूर्व में लिखा गया है।
(4) मोक्ष प्राप्ति की प्रबल इच्छा जागृत कर लेना :
यह संकल्प कर लेना कि इसी दुर्लभ मनुष्य जन्म में ही अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मलाभ) को पहचान लेना है।
श्री गुरू सान्निध्य-प्राप्ति एवं ब्रह्मविद्या उपदेश की आध्यात्मिक प्रणाली सृष्टि के आरम्भ काल से ही अनवरत चलती आ रही है। प्राचीनकाल में त्रिकालज्ञ गुरू (ऋषि,मुनि, सन्त) आश्रमों में रहकर, तपश्चर्या में संलग्न रहते थे। उस समय जिज्ञासु व्यक्ति दीक्षा प्राप्ति हेतु अपनेहाथों में समिधा (यज्ञ हेतु काष्ठादि) लेकर अत्यन्त विनम्र होकर तथा हाथ जोड़कर किसी श्रोत्रिय तथा ब्रह्मनिष्ठ गुरू की शरण में जाता था और ब्रह्मविद्या की याचना करता था।
”स गुरू मेवाभिगच्छेत्, समित्पाणि, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ:” तब गुरूदेव उस शिष्य के समस्त लक्षणों तथा योग्यता का विचार करके उसे ब्रह्मविद्या का उपदेश देते थे।
इस विषय पर आदिशंकराचार्य ने निर्देश दिया है कि
”गुरू मेवाचार्य शम दमादि सम्पन्न मभिगच्छेत्
शास्त्रज्ञोपि स्वतंत्रेण-ब्रह्मज्ञानान्वेषणं न कुर्यात्”
(शिष्य को शम-दमादि गुणों से सम्पन्न होकर ही गुरूदेव के पास जाना चाहिए। शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात भी शिष्य को ब्रह्मज्ञान की मनमानी खोज नहीं करनी चाहिए।)
श्री वासुदेवानन्द सरस्वती अपने वेदान्त ग्रन्थ में सत्गुरू की शरण में जाने के विषय पर कहते हैं :-
”विशारदं ब्रह्मनिष्ठं-श्रोत्रियं गुरू माश्रयेत्”
(शिष्य को ऐसे गुरू की शरण में जाना चाहिए जो शब्द-ब्रह्म को जानने वाला हो तथा ब्रह्म-शाक्षात्कार करा सकने की क्षमता रखता हो।)
गुरु खोज कर उनसे याचना ही शिष्य के लिए पर्याप्त नहीं होता ,उसे इस योग्य होना होता है की गुरु उसे अपना उत्तराधिकारी योग्य पाए |आजकल की जो सामान्य धारणा है की गुरु से मंत्र प्राप्त किया और रटने लगे ,वास्तव में यह इतना मात्र ही दीक्षित के कर्म नहीं है |समय समय पर गुरु का मार्गदर्शन भी आवश्यक होता है साथ ही गुरु भी शिष्य की योग्यता आनुसार ही उसको शक्ति और ज्ञान प्रदान करता है |सभी को एक सामान ज्ञान और शक्ति गुरु नहीं देता |क्षमता और योग्यता देखकर ही गुरु निर्णय करता है की किसे क्या देना है क्या नहीं देना |
आज के समय में सबसे दुरूह कार्य गुरु खोजना ही है क्योंकि सामान्यतया समय क्रम में भौतिकता की आंधी में वास्तविक साधक समाज से दूर होता गया और जो समाज से जुड़े रहे वह अधिकतर भौतिकता वादी शिष्य ही रहे जो बाद में गुरु बन गए |आज तो और भी स्थिति विषम है ,आडम्बर ,वैभव ,भोग विलाश ,गर्व -अहंकार ,आर्थिक लोभ में डूबे गुरु ही अधिकतर दिखाई देते हैं जबकि जो वास्तविक गुरु हैं वह इनमे रूचि न रखने से समाज में निर्लिप्त रहते हैं अतः उन्हें खोज पाना ही दुरूह होता है |जिसे ऐसे गुरु मिल जाएँ उसका कल्याण हो जाता है अन्यथा व्यक्ति भटकता ही रहता है और दीक्षित होने का भ्रम पाले रहता है |हमने अपने इस अलौकिक शक्तियां वेबसाईट पर गुरु और शिष्य पर अनेक लेख प्रकाशित किये है और कर रहे हैं जिससे लोगों को अधिकतम सही जानकारी प्राप्त हो सके |स्वयं तंत्र क्षेत्र में सक्रीय रहने से हम वास्तविकता का अनुभव कर पाते हैं अतः हम प्रयास करते रहे हैं की लोगों तक सही स्थिति पहुंचाई जाए |……………………..हर हर महादेव
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