दीक्षा और शिष्य
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दीक्षा गुरु द्वारा शिष्य को दी जाती है |गुरु शिष्य की योग्यतानुसार उसे दीक्षा देता है |दीक्षा हेतु शिष्य में पात्रता और योग्यता के साथ ही उसका व्यवहार एक अहम् कारक होता है |शास्त्रानुसार शिष्य का व्यवहार इस प्रकार होना चाहिए — जो प्रणाम करके आज्ञा लेकर पास बैठे ,हर समय मन ,कर्म ,वाणी से गुरु की सेवा में तत्पर रहे ,किसी प्रकार का अभिमान न करते हुए नम्रता और दीनता से गुरु से बात करे ,|चाहे मृत्यु तक हो जाए पर आज्ञा उल्लंघन कभी न करे |सेवक या दास की भाँती गुरु के स्थान में निवास करे ,त्रिकाल नमस्कार करे ,समेत बैठने पर सारा ध्यान उसी और लगाए रहे |शिष्य को चाहिए की गुरु वाणी को ध्यान से सुने ,सुनने के समय उस और ही टकटकी लगाये रहे |जब तक पास बैठे कोई भद्दा या बुरा विचार दिल में न आने दे |सत्संग में पैर फैलाकर न बैठे ,न लेटे |नंगा- या बिना बदन ढके भी न बैठे |कोई ऐसी हरकत न करे जो सभा या सोसायटी के विरुद्ध हो |रोना-धोना ,काम-क्रोध और हंसी -मजाक की बात भी गुरु के सम्मुख न बोले |जब उठके चलने लगे तो पीठ दिखा के न चले ,इत्यादि |गुरु से न कभी कर्जा ले और न उसे दे और वस्तुओं की खरीद-फरोख्त भी गुरु से न करे ,क्योकि यह दोनों काम श्रद्धा को दूर हटाने वाले हैं |शिष्य अपने गुरु में पूर्ण श्रद्धा रखे ,दुसरे को देखकर अपने गुरु के प्रति अश्रद्धा कभी न करे ,अन्यथा पतन निश्चित होता है |गुरु की आज्ञा पालन की यथा शक्ति चेष्टा करे ,न हो पाने पर श्रद्धा पूर्वक क्षमा मांगे |सम्मुख आने पर कोई दूसरा विचार अंतर में न उठने दे |आज के समय में कितने शिष्यत्व के इच्छुक इन नियमों का पालन कर सकते हैं ?,,नहीं कर सकते तो शिष्य वास्तव में वह हैं ही नहीं और शिष्यत्व का आग्रह नहीं करना चाहिए |
गुरोर्ध्यानेनैव नित्यं देही ब्रह्ममयो भवेत् | स्थितश्च यत्रकुत्रापि मुक्तोऽसौ नात्र संशयः |
दीक्षा में शिष्य -शिष्या का पूर्णतया मानसिक समर्पण आवश्यक होता है ,साथ ही गुरु का शिष्य -शिष्या के समर्पण को स्वीकार कर लेना भी आवश्यक है |इसलिए ऐसा भी नहीं महसूस होना चाहिए गुरु को की वह शिष्य -शिष्या पर किसी प्रकार का संदेह करे |गुरु शिष्य -शिष्या की पात्रता देखकर ही उसका समर्पण और शिष्यत्व स्वीकार करता है तथा शिष्य -शिष्य की ज्योतिषीय ,तांत्रिक या वाम मार्गी विधि से परीक्षण करके उसके लिए उपयुक्त देवी -देवता या मंत्र का चुनाव करता है अथवा वह उसके लिए उपयुक्त मार्ग का चुनाव करता है |मंत्र चुनने के बाद या देवी देवता को ईष्ट बनाने या मार्ग चुनने के बाद इनके लिए समय ,काल ,देश ,तिथि आदि का निर्धारण गुरु करता है |तदुपरांत गुरु शिष्य -शिष्या का शुद्धि संस्कार करता है ,ईष्ट देवता की स्थापना या मन्त्र में प्राण प्रतिष्ठा करता है |शिष्य -शिष्या द्वारा नैतिक आचार ,आचरण ,गोपनीयता ,विश्वास ,शुद्धि प्रक्रिया ,निरंतरता और दृढ संकल्प की शपथ करवाता है |तब विधि विधान से पूजन होता है मन्त्र जप के लिए भी या मन्त्र का दान लेते समय भी |न इतने से शुष्य का कर्तव्य समाप्त हो जाता है न गुरु का |दोनों की निरंतरता बनी रहती है |दोनों में किसी और कमी आने पर गुरु शिष्य के बीच परम सम्बन्ध प्रभावित होते हैं |आधुनिक समय में जबकि अक्सर अश्रद्धा देखि जाती है ,अगर कभी गुरु को संदेह हो अथवा शिष्य को गुरु पर अश्रद्धा अथवा संदेह हो तो यह ईश्वर पर अश्रद्धा मानी जाती है और फिर शिष्य को न गुरु मिलते हैं न ईश्वर |………………………………………………………हर-हर महादेव
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