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ज्योतिष ,तंत्र ,कुण्डलिनी ,महाविद्या ,पारलौकिक शक्तियां ,उर्जा विज्ञान

भैरवी विद्या के सूत्र

कुंडलिनी तंत्र में नारी -पुरुष और मूल भूत सिद्धांत 

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        कुंडलिनी की धारा में नारी और पुरुष में कोई अंतर नहीं है |चूंकि जनन tantra [स्तन ,लिंग ,योनी ,गर्भाशय ,शुक्राशय ,वीर्य ,रज आदि ]के अंतर के आलावा नारी पुरुष तात्विक रूप से एक जैसे हैं |सप्त धातुओं के निर्माण में भी रस ,रक्त ,मांस ,मेद ,अस्थि ,मज्जा तक का निर्माण एक ही प्रक्रिया से नारी और पुरुष में होता है |केवल आकार परिवर्तन के कारण तुलनात्मक अंतर रहता है |मज्जा से आगे पुरुष में वीर्य और स्त्री में राज का निर्माण होता है ,जिसका उपयोग जनन tantra में होता है |यदि जनन tantra का उपयोग प्रजनन हेतु न किया जाए तो नारी पुरुष दोनों का ओज निर्मित हो उठता है ,जो मेरु द्रव्य में मिश्रित हो जाता है |इस आधार पर सामान्य से अधिक बल पूर्वक ओज निर्मित करने के लिए जनन tantra का उपयोग किया जाना स्वाभाविक और प्राकृतिक है |

          शरीर में वीर्य /राज का स्थान नीचे जनन तंत्रों में है |इन्हें उद्वेलित करने से ही वीर्य अथवा राज उद्वेलित होते हैं और स्खलन बिंदु पर इस प्रकार से बाहर भागने का प्रयत्न करते हैं जैसे कोई कुंडली मारे हुए सोता सांप छेड़ दिए जाने पर भागता है |यदि उस सांप को भागने न दिया जाए तो वह फन उठाकर खड़ा पड़ जाता है |इसीप्रकार उद्वेलित वीर्य राज को स्खलित न होने दिया जाए तो यह भी कुपित होकर उर्ध्वगमन करने लगता है |इस आशय का रूपक ही कुंडलिनी शक्ति को सर्प शक्ति [ serpentine power — कुंडली मारे फन उठाये सर्प ] की संज्ञा देता है |इस प्रकार यह सर्प शक्ति जब मं की वह शक्ति है ,मं की वह रस्सी है जिससे लिंग को इस प्रकार से बाँध दिया जाता है की स्खलन बिंदु आने पर भी वह वीर्य को स्खलित होने से रोक देती है ,जैसे किसी सांप ने लिंग को कुंडली से बांधकर वीर्य को निकलने से रोक दिया हो |

कुंडलिनी शक्ति को चैतन्य करने की कोई भी प्रक्रिया अपनाएँ उसमे कुछ बुनियादी सूत्र अवश्य रहेंगे —

[१] वीर्य रज कुपित होने के लिए सम्बंधित जननांगों में झटके दिया जाना  — यह झटके दो प्रकार के होंगे ,,एक सम्पूर्ण प्रजनन संस्थान को उद्वेलित कर देने वाले ,,और दुसरे ,वीर्य – रज कुपित हो उठने पर परिवर्तित ओज का उर्ध्वा गमन कराने वाले |पहले प्रकार के झटकों में शक्तिचालिनी मुद्रा और दीर्घ एवं प्रहर्षित सम्भोग का नाम आता है |दुसरे प्रकार के झटकों में वज्रोली [पुरुषों के लिए ] तथा अश्विनी [स्त्रियों के लिए ]मुद्राओं के नाम आते हैं |इनमे कुछ अति विशिष्ट सूक्ष्म तकनीकियाँ प्रयोग की जाती हैं |

[२] ओज परिवर्तन प्रारम्भ हो उठने पर उसे मष्तिष्क तक चढाने की प्रक्रिया में स्त्री- पुरुष दोनों के लिए एकाग्रता [धारणा ]का अभ्यास आता है ,चाहे वह परमात्मा के नाम पर हो अथवा आत्मा के नाम पर ,श्वास पर हो अथवा मंत्र पर |धारणा ही उर्ध्वगमन का मार्ग प्रशस्त करती है |

[३] श्वास क्रिया का अपना अलग महत्त्व है |हम सम्भोग मुद्रा में उतरें चाहे शक्तिचालिनी मुद्रा में — श्वास क्रिया स्वतः ही अपनी गति पकडती है |उचित ढंग से ली गई श्वास ही ह्रदय गति को नियंत्रित करती है |ह्रदय गति के आधार पर सम्पूर्ण शरीर की नाड़ियों में रक्त परिभ्रमण की गति होती है |इस प्रकार शरीर में स्वस्थ रक्त के परिभ्रमण का नियंत्रण श्वास पर आधारित होता है |श्वास लेने की विभिन्न प्रकार की विधियाँ प्राणायाम के अंतर्गत सिखलाई जाती हैं |यदि हम उचित आयुवर्द्धक स्वास लेने की कला सीख लें तो कोई भी कार्य करते हुए हमारी श्वास की धारा [ लय ] एक ही रहेगी ,चाहे हम उसमे तेज श्वास ले या धीमे ,लय में कोई अंतर नहीं आएगा |कुंडलिनी योग सीखने वालों को प्राणायाम का अभ्यास इसी हेतु कराया जाना आवश्यक है |

[४] प्राणायाम के अभ्यास के साथ ही योगासनों का महत्त्व भी कम नहीं है |कुंडलिनी साधना में शरीर का लचीला होना अत्यंत महत्वपूर्ण है |कुंडलिनी जाग्रत होने के क्षण में शरीर अपने को विभिन्न मुद्राओं में तोड़ता मोड़ता है ,यदि उस क्रिया में कोई व्यवधान आये तो कुंडलिनी उर्ध्व गमन नहीं कर पाती |लचीली पेशियाँ योगासनों के अभ्यास से बनती हैं |

[५] शरीर एक जटिल संयंत्र या मशीन है |प्रत्येक मशीन में तेल पानी के विषय में नियमित रहने पर उसकी कार्यक्षमता और आयु में वृद्धि होती है |तेल से तात्पर्य घर्षण में कमी करने वाले चिकनाई युक्त द्रव्यों से है और पानी से तात्पर्य काम करते हुए मशीन को ठंडा करने वाले द्रव्यों से है |जिस मशीन में इंधन तथा तेल पानी उचित अनुपात में नियम पूर्वक नहीं डाले जाते वह शीघ्र ही बेकार हो जाती है |इसलिए शरीर को अष्टांग योग के यम ,नियम ,आसन ,प्राणायाम ,प्रत्याहार ,धारणा ,ध्यान आदि के द्वारा निरोग तथा दीर्घायु बनाने पर बल दिया जाता है |……………………………………………………………..हर-हर महादेव


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