गुरु दीक्षा :: मुक्ति का मार्ग
===================[[भाग -२ ]]
प्रत्येक मनुष्य, जिसने जन्म लिया हैं उसके लिए सर्वथा उपयोगी हैं दीक्षा, क्योंकि दीक्षा शिष्य के जीवन को पावन बनाने की दुर्लभ क्रिया हैं. हमारे कई – कई जन्मों के दोष, पाप एवं कुसंस्कारों के रूप में संकलित रहते हैं. इन्हीं दुःसंस्कारों से साधक को मुक्त करने के लिए दीक्षाएँ अपेक्षित हैं. गंदे कपड़े के मैल को बिलकुल निर्मूल करने के लिए जैसे कई बार कई प्रयास करने पड़ते हैं, वैसे ही कर दुःसंस्कारों को मिटने के लिए दीक्षा ही सबल उपाय हैं |.इसीलिए पाप मुक्त होने के लिए साधक द्वारा अनेक बार दीक्षा लेने का शास्त्रीय विधान हैं. दीक्षाओं के अनेक स्वरुप एवं प्रकार हैं, इसलिए आवश्यकतानुसार उनको लेने का प्रयास करते रहना चाहिए.
शिष्य के जीवन की यह एतिहासिक घटना होती हैं, कि सदगुरु उसे गुरु दीक्षा के माध्यम से अपना ले, ह्रदय से लगाकर अपने जैसा पावनतम बनाकर, एकाकार कर ले. केवल शिष्य के कान में गुरु मन्त्र फूंक देना ही गुरु दीक्षा नहीं होती. शिष्य के जीवन के पाप, ताप को समाप्त कर बंधन मुक्त करना, जन्म – म्रत्यु के चक्र से छुड़ा देना ही दीक्षा होती हैं, नर से नारायण बनाने की, पुरुष से पुरुषोत्तम बनाने की तथा मृत्यू से अमृत्यू की ऑर ले जाने की पावनतम क्रिया ही गुरु दीक्षा होती हैं. गुरु दीक्षा लेने के बाद तो यह सम्पूर्ण जीवन ही विकसित कमल पुष्प की तरह सम्मोहक, पूर्णमासी के चन्द्र सामान आह्लादक एवं अमर फल की तरह मधुर व रसपूर्ण होता ही हैं |
दीक्षा गुरु और शिष्य के मध्य ज्ञान के लें देन का संकल्प है |यह एक प्रतिज्ञा है और शिष्य -शिष्या का संस्कार भी |दीक्षा में प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं और भाव को पवित्र एवं उद्देश्यानुसार रखने का शिष्य से संकल्प कराया जाता है |दीक्षा का यह अर्थ नहीं है की आप किसी गुरु के शिष्य हो गए ,एक मंत्र उनसे प्राप्त करके उसका जाप करने लगे |दीक्षा तो ज्ञान प्राप्ति का संकल्प मात्र है |यह ज्ञान नहीं है |यह गुरु शिष्य द्वारा किसी विषय को प्रारम्भ किया जाना मात्र है |शिष्य को जब तक सिद्धि नहीं मिलती ,गुरु-शिष्य दोनों का कर्त्तव्य जारी रहता है |मूर्खों और स्वार्थियों के इस संसार में मात्र मंत्र देना ही दीक्षा मान लिया गया है |भीड़ में ,सबको सुनाकर ,प्रचार करके मंत्र दिया और उसके एवज में दक्षिणा ली और हो गया गुरु दीक्षा |फिर कभी गुरु जी शिष्य के लिए उपलब्ध नहीं है |न उसकी समस्याओं से कोई मतलब है ,न उसे सफलता मिली या नहीं उससे कोई मतलब है ,न कभी उसकी सुध ली न कारण जानने की कोसिस की कि उसे सफलता क्यों नहीं मिल रही |शिष्य भी एक जगह सफलता नही मिली तो अश्रद्धालु हुआ और दुसरे को गुरु बना लिया |यह सब दीक्षा है ही नहीं | [[क्रमशः ]]………………………………………….हर-हर महादेव
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