तंत्र में रति को ११ विभिन्न प्रकारों में परिभाषित किया गया है जिनमे से ७ प्रकार की रति के विषय में हम पहले बता आये हैं |इस लेख में हम चार अन्य प्रकार की रतियों के विषय में लिख रहे जिनमे से देव रति और स्पर्श रति ही तंत्र में स्वीकार्य हैं अन्य दो को तंत्र स्थान नहीं देता |चूंकि इनको भी परिभाषित किया गया है ताकि साधक इनसे बचें अतः इनको यहाँ लिखा जा रहा |
[८] अप्राकृतिक रति
============= जैसा की हम अपने पिछले पोस्ट कृत्रिम रति में बता आये हैं की आज के समय के परिवेश ,माहौल में कृत्रिम रति से युवा जीवन बर्बाद कर रहे हैं |इसी तरह आज अप्राकृतिक रति भी बढ़ गयी है |किशोर-किशोरी किसी भी संगती में पड़कर समलैंगिक रति करने लगे हैं |इसमें लड़के ,लड़कों के साथ और लड़कियां अपनी सहेली या किसी समवयस्क लड़की को पार्टनर बना लेती हैं |यह कामुकता के भाव की एक विकृत अवस्था है |ऐसे लड़के युवा होने पर ,किसी युवती से रति करना पसंद नहीं करते |उन्हें समलिंगी से कामोत्तेजना संतुष्ट करती है |इसी प्रकार ऐसी लड़कियां भी पुरुष के प्रति कामोत्तेजित नहीं होती |उन्हें लड़कियों से ही संतुष्टि मिलती है |यह प्राकृतिक नियमो और प्रकृति की ऊर्जा संरचना के विरुद्ध है |फलतः इससे उनमे अनेक विकृतियों का उदय होता है और शारीरिक ऊर्जा समीकरण में परिवर्तन भविष्य में अनेक समस्याएं उत्पन्न करता है |तब जब इनका कोई उपयुक्त निराकरण नहीं मिलता |
[९] देव रति
======== इस रति में पहले विशिद्ध चक्र की तरंगें तीव्रतम होती हैं ,फिर मूलाधार की तरंगें उत्पन्न होती हैं |इनकी धनात्मक एवं ऋणात्मक रति में विष्णु चक्र प्रदीप्त होता है |ऐसी रति तभी संभव है ,जब युवक-युवती एक-दुसरे के प्रति उदात्त भाव के प्रणय से युक्त हों |वे एक -दुसरे को समीप पाकर सुध-बुध खोकर आत्मिक अपनत्व का अनुभव करते हैं |
[१०] पैशाचिक रति
============= पैशाचिक रति उस रति को कहते हैं ,जिसमे किसी ऐसे पात्र से रति की जाती है ,जो रति के उपयुक्त नहीं है |जैसे कच्ची उम्र की बालिका ,कच्चे उम्र का किशोर ,मानसिक रूप से विकृत ,बीमार ,उद्विग्न ,भयभीत आदि |
[११] स्पर्श रति
========== जब स्त्री पुरुष को या पुरुष स्त्री के शरीर को स्पर्श करके कामसूत्र की प्राप्ति करता है ,तो वह स्पर्श रति कहलाती है |इसमें लैंगिक रति नहीं होती |न ही चरमोत्कर्ष होता है |यह शुद्ध रूप से ऊर्जा रति है |इसलिए वाम मार्गी रति में इस रति का महत्व सर्वाधिक है |भैरवी विद्या के शुरू के चरण में इस रति को मुख्य रखा जाता है |प्रबल आकर्षण उत्पन्न करने में सहायक यह रति स्पर्श तक सीमित रहती है किन्तु यह दो आत्माओं में बहुत तीब्र ऊर्जा रति उत्पन्न करती है |वह एक दुसरे में खो जाते हैं |उर्जाओं की यह तीब्रता चक्र क्रियाशीलता में अति सहायक होता है |
तांत्रिक अभ्यासों में कृत्रिम रति ,अप्राकृतिक रति ,राक्षस रति ,पैशाचिक रति का कोई स्थान नहीं है |इन्हें केवल साधक को इसलिए बताया जाता है की वह ऐसी गलती या आचरण कभी न करें |अघोर तंत्र की डाकिनी सिद्धि में पशु रति का महत्त्व है किन्तु यह स्थिति क्रमशः आत्मिक रति ,स्पर्श रति ,देव रति ,मानव रति के क्रम में वहां तक पहुचती है ,अतः वहां तक आते आते इसका स्वरुप और भावना बिलकुल परिवर्तित हो चुकी होती है |यह एक ही रति अभ्यास में परिवर्तित होता चला जाता है |अंध पशु भाव के रतिकाल में बुद्धि, ज्ञान ,विवेक ,विचार ,स्वयं की अनुभूति आदि का लोप हो जाता है |ऐसे समय में जो अचानक ही इसे रोककर शिवत्व में लींन हो जाए ,वही सिद्ध है ,का सिद्धांत ही इस रति के महत्त्व का कारण है |……………………………हर हर महादेव
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