केवल दो उँगलियाँ मिला दें सारे रोग समाप्त
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वीडियो का शीर्षक है मात्र दो उंगलियाँ आपस में मिला दें रोग समाप्त होगा |यह अतिशयोक्ति नहीं और न ही आश्चर्यजनक है |यह सच है बस आप इसे नहीं जानते |तंत्र और योग में हजारों वर्षों से इसका उपयोग होता आया है और साधक इनसे खुद को स्वस्थ ,दीर्घायु ,अतीन्द्रिय शक्तियुक्त बनाते आये हैं |इसको मुद्रा विज्ञान और मुद्रा चिकित्सा भी कहते हैं और इसमें कोई खर्च भी नहीं आता न ही कोई श्रम करना होता है |मात्र बैठे बैठे उपचार हो जाता है |आपको शायद पता न हो किन्तु आपके हाथों की पांच अँगुलियों में पांच तंत्व अग्नि ,जल ,पृथ्वी ,आकाश और वायु के गुण होते हैं और आपका पूरा शरीर भी इन्ही से बना है ,तो इन पांच उँगलियों को आपस में आवश्यकतानुसार मिला देने से शरीर की समस्या भी दूर होती है संतुलन भी बढ़ता है और चाहें तो इनसे अतीन्द्रिय शक्तियाँ भी पा सकते हैं |उदाहरण से हम आपको समझाते हैं
हाथ की तर्जनी (अंगूठे के साथ वाली) अंगुली के अग्रभाग (सिरे) को अंगूठे के अग्रभाग के साथ मिलाकर रखने और हल्का-सा दबाव देने से ज्ञान मुद्रा बनती है| इस मुद्रा में दबाना जरूरी नहीं है| बाकी उंगलियां सहज रूप से सीधी रखें| यह अत्यधिक महत्वपूर्ण अंगुली-मुद्रा है| इस मुद्रा का सम्पूर्ण स्नायुमण्डल और मस्तिष्क पर बड़ा ही हितकारी प्रभाव पड़ता है|इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से जीवन रेखा और बुध रेखा के दोष दूर होते हैं तथा अविकसित शुक्र पर्वत का विकास होता है|ज्ञान मुद्रा समस्त स्नायुमंडल को सशक्त बनाती है| विशेषकर, मानसिक तनाव के कारण होनेवाले दुप्रभावों को दूर करके मस्तिष्क के ज्ञान तंतुओं को सबल करती है| ज्ञान मुद्र के निरंतर अभ्यास से मस्तिष्क की सभी विकृतियां और रोग दूर हो जाते हैं| अनिद्रा रोग में यह मुद्रा अत्यंत कारगर सिद्ध होती है| मस्तिष्क शुद्ध और विकसित होता है| मन शांत हो जाता है| चेहरे पर अपूर्व प्रसन्नता झलकने लगती है|ज्ञान मुद्रा मानसिक एकाग्रता बढ़ाने में सहायक होती है| तर्जनी अंगुली और अंगूठा जहां एक एक दूसरे को स्पर्श करते हैं, हल्का-सा नाड़ी स्पन्दन महसूस होता है| वहां ध्यान लगाने से चित्त का भटकना बंद होकर मन एकाग्र हो जाता है|ज्ञान मुद्रा विद्यार्थियों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है| इसके अभ्यास से स्मरण शक्ति उन्नत और बुद्धि तेज होती है| साधना के क्षेत्र में साधक द्वारा लगातार ज्ञान मुद्रा करने से उसका ज्ञान-नेत्र (शिव-नेत्र) खुल सकता है| अन्तःदृष्टि प्राप्त होकर छठी इंद्रिय का विकास हो सकता है| दिव्य-चक्षु के खुलने से साधक त्रिकाल की घटनाओं को यथावत् देख सकने तथा दूसरे के मन की बातें जान सकने की क्षमता प्राप्त कर लेता है|ज्ञान मुद्रा से स्मरण-शक्तिका विकास होता है और ज्ञानकी वृद्धि होती है, पढ़नेमें मन लगता है तथा अनिद्राका नाश, स्वभावमें परिवर्तन, अध्यात्म-शक्तिका विकास और क्रोधका नाश होता है ।
तर्जनी (अंगूठे के साथ वाली) अंगुली को मोड़कर अंगूठी की जड़ में लगाकर उसे अंगूठे से हल्का-सा दबाने पर वायु मुद्रा बनता है| इस मुद्रा से रोगी के शरीर में वायु तत्व शीघ्रता से घटने लगता है| अतः वायु के प्रकुपित होने से उत्पन्न होनेवाले सभी रोग इस मुद्रा से शांत हो जाते हैं| लकवा, साइटिका, गठिया, संधिवात, घुटनेके दर्द ठीक होते हैं । दर्दनके दर्द, रीढ़के दर्द आदि विभिन्न रोगोंमें फायदा होता है ।
मध्यमा (सबसे बड़ी उंगली) को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाने पर आकाश मुद्रा बन जाती है|हस्तरेखा विज्ञान की दृष्टि से शनि ग्रह से सम्बंध रखनेवाले रोगों में यह मुद्रा लाभप्रद सिद्ध होगी जबकि जन्मकुंडली में शनि नीच का हो| यदि जम्भाई लेते या उबासी लेते हुए अचानक जबड़ा फंस जाए और मुख बंद न हो अंगूठे को मध्यमा उंगली के साथ रगड़ने या चुटकी बजाने से फंसा हुआ जबड़ा तत्काल खुल जाता है| यही कारण है कि बहुत से लोग उबासी लेते हुए (कारण न जानते हुए भी) मध्यमा और अंगूठे को मुंह के पास ले जाकर चुटकी बजाते हैं| यह मुद्रा हृदय रोगों में भी लाभकारी है|आकाशमुद्रा से कान के सब प्रकार के रोग जैसे बहरापन आदि ,हड्डियों के रोग ,हड्ड्यों की कमजोरी ,ह्रदय रोग ठीक होता है |
अंगूठे से दूसरी अंगुली (मध्यमा,सबसे लम्बी वाली अंगुली) को मोड़कर अंगूठे के मूल भाग (जड़ में) स्पर्श करें और अंगूठे को मोड़कर मध्यमा के ऊपर से ऐसे दबायें कि मध्यमा उंगली का निरंतर स्पर्श अंगूठे के मूल भाग से बना रहे..बाकी की तीनो अँगुलियों को अपनी सीध में रखें.इस तरह से जो मुद्रा बनती है उसे शून्य मुद्रा कहते हैंइस मुद्रा के अभ्यास से बहरे व्यक्ति के अतिरिक्त गूंगे भी लाभान्वित हो सकते हैं |जन्म से बहरे या गूंगे होने पर इस मुद्रा प्रभाव नहीं होता | इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से कान बहना, बहरापन, कान में दर्द इत्यादि कान के विभिन्न रोगों से मुक्ति संभव है.यदि कान में दर्द उठे और इस मुद्रा को प्रयुक्त किया जाय तो पांच सात मिनट के मध्य ही लाभ अनुभूत होने लगता है.इसके निरंतर अभ्यास से कान के पुराने रोग भी पूर्णतः ठीक हो जाते हैं |शून्य मुद्रा से कान के सब प्रकार के रोग दूर होकर शब्द साफ़ सुनाई देता है |मसूड़े की पकड़ मजबूत होती है तथा गले के रोग एवं थायराइड रोग में फायदा होता है |
अनामिका (छोटी उंगली के पास वाली) उंगली तथा अंगूठे के सिरे को परस्पर मिलाने से पृथ्वी मुद्रा बनती है|ससे सभी प्रकार की शारीरिक कमजोरियां दूर होती हैं|त्वचा की सुन्दरता और कांटी बढती है |शारीर में स्फूर्ति .कान्ति एवं तेजस्विता आती है |दुर्बल व्यक्ति मोटा बन सकता है |वजन बढ़ता है |जीवनी शक्ति का विकास होता है |यह मुद्रा पाचन क्रिया ठीक करती है |सात्विक गुणों का विकास करती है ,दिमाग में शांति लाती है तथा विटामिन की कमी को दूर करती है
अनामिका (सबसे छोटी उंगली के पास वाली) अंगुली को अंगूठे की जड़ में लगाकर अंगूठे से हल्का-सा दबाने पर सूर्य मुद्रा बनती है|इस मुद्रा से अनामिका द्वारा हथेली में थाइरॉइड ग्रंथि का केंद्र दबता है|सूर्य मुद्रा से शरीर संतुलित होता है, वजन घटता है, मोटापा कम होता है । शरीरमें उष्णताकी वृद्धि, तनावमें कमी, शक्तिका विकास, खूनका कोलस्ट्रॉल कम होता है । यह मुद्रा मधुमेह, यकृत् (जिगर)- के दोषोंको दूर करती है ।
सबसे छोटी उंगली (कनिष्ठिका) को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाने पर वरुण मुद्रा बनती है| इस तत्व की कमी से जहां त्वच में रूखापन आता है, वहीं स्वभाव में भी चिड़चिड़ापन बन जाता है| एक अजीब-सा तनाव हमेशा तन-मन में बना रहता है| परिणामस्वरूप अपने सामाजिक ढांचे को भी ऐसा व्यक्ति बिगाड़ लेता है| इसको विपरीत अर्थात् जल तत्व की वृद्धि होने की कल्पना की उड़ान ऊंचाइया छूने लगी हैं| कमी में पहली मुद्रा और अधिकता में दूसरी मुद्रा से लाभ होता है|कनिष्ठिका को पहले अंगूठे की जड़ में लगाकर फिर अंगूठे से कनिष्ठिका को दबाने से दूसरी मुद्रा बनती है| इसमें बीच की तीन उंगलियां सहज एवं सीधी रहती हैं|वरुण मुद्रा शरीरमें रूखापन नष्ट करके चिकनाई बढ़ाती है, चमड़ी चमकीली तथा मुलायम बनाती है । चर्म-रोग, रक्त-विकार एवं जल-तत्त्वकी कमीसे उत्पन्न व्याधियोंको दूर करती है । मुँहासोंको नष्ट करती और चेहरेको सुन्दर बनाती है । रूखापन नष्ट, चमड़ी चमकीली व मुलायम, चर्मरोग, रक्त विकार, मुहाँसे एवं जल की कमी वाले रोग दूर होते हैं। दस्त, में लाभ। शरीर में खिंचाव का दर्द ठीक होता है।
मध्यमा तथा अनामिका, दोनों उंगलियों के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिला देने से अपान मुद्रा बनती है| अपान मुद्रा के प्रभाव से शरीर निर्मल होता है और सम्पूर्ण विजातीय द्रव्य या मल सरलतापूर्वक शरीर से बाहर निकल जाते हैं| इसके अभ्यास से सात्विक भाव उत्पन्न होते हैं और इनमें वृद्धि भी होती है| अपां मुद्रा से शरीर और नाड़ीकी शुद्धि तथा कब्ज दूर होता है । मल-दोष नष्ट होते हैं, बवासीर दोर होता है । वायु-विकार, मधुमेह, मूत्रावरोध, गुर्दोंके दोष, दाँतोंके दोष दूर होते हैं । पेटके लिये उपयोगी है, हृदय-रोगमें फायदा होता है तथा यह पसीना लाती है ।
कनिष्ठिका और अनामिका (सबसे छोटी तथा उसके पास वाली) उंगलियों के सिरों को अंगूठे के सिरे से मिलाने पर प्राण मुद्रा बनती है|प्राण मुद्रा शारीरिक दुर्बलता दूर करती है, मनको शान्त करती है, आँखोंके दोषोंको दूर करके ज्योति बढ़ाती है, शारीरकी रोग-प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाती है, विटामिनोंकी कमीको दूर करती है तथा थकान दूर करके नवशक्तिका संचार करती है । लंबे उपवास-कालके दौरान भूख-प्यास नहीं सताती तथा चेहरे और आँखों एवं शरीरको चमकदार बनाती है । अनिद्रामें इसे ज्ञान-मुद्रा के साथ करे ।
तर्जनी (अंगूठे के पास वाली) उंगली को अंगूठे की जड़ में लगाकर अंगूठे के अग्रभाग को मध्यमा और अनामिका (बीच की दोनों अंगुलियां) के अगले सिरे से मिला देने से अपानवायु मुद्रा बनती है| इसे ह्रदय मुद्रा भी कहते हैं |मुद्रा जिनका दिल कमजोर है, उन्हें इसे प्रतिदिन करना चाहिये । दिलका दौरा पड़ते ही यह मुद्रा करानेपर आराम होता है । पेटमें गैस होनेपर यह उसे निकाल देती है । सिर-दर्द होने तथा दमेकी शिकायत होनेपर लाभ होता है । सीढ़ी चढ़नेसे पाँच-दस मिनट पहले यह मुद्रा करके चढ़े । इससे उच्च रक्तचाप में फायदा होता है ।सावधानी:- हृदयका दौरा आते ही इस मुद्राका आकस्मिक तौरपर उपयोग करे ।
समझ आया क्या आपको की मात्र दो अंगुलिय आपस में जोड़ लेने से क्या क्या हो सकता है |इसी तरह अनेक मुद्राएँ और क्रियाएं हैं जिनसे आप लाभ उठा सकते हैं तो समझिये अपने सनातन विज्ञानं को और सुखी ,स्वस्थ ,सक्षम रहिये |…………………..हर हर महादेव
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