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ज्योतिष ,तंत्र ,कुण्डलिनी ,महाविद्या ,पारलौकिक शक्तियां ,उर्जा विज्ञान

ब्रह्म रति और मानसिक सम्भोग

कुंडलिनी तंत्र साधना या मूल भैरवी साधना में शारीरिक रति को महत्व नहीं दिया जाता |मूलतः पूरा तंत्र ही ऊर्जा तरंगों की रति को महत्व देता है ,जिसके भावों में प्रत्येक बार अंतर होता है और भावो के अनुसार ऊर्जा तरंगें भी भिन्न होती हैं |तंत्र का मानना है की एक ही जोड़े की विभिन्न समय में की गयी एक ही प्रकार की रति के प्रकारों में अंतर होता है |तंत्र में रति को विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न प्रकारों में विभाजित किया गया और तदारुरूप उनके गुण-दोषों को परिभाषित किया गया है | 11 प्रकार की रति में से चार प्रकार की रति के विषय में हम अपने पिछले लेखों में बता आये हैं तथा आज हम ब्रह्म रति और मानसिक रति को परिभाषित करने का प्रयत्न कर रहे जिन्हें तंत्र या भैरवी साधना या कुण्डलिनी साधना में अत्यधिक महत्त्व दिया जाता है |इन रतियों में उर्जा रति होती है और सफलता कई गुना बढ़ जाती है |

[ 5 ] मानसिक रति

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         मानसिक रति में स्त्री ,पुरुष के साथ और पुरुष ,स्त्री के साथ मानसिक रूप से रति करते हैं ,पर शारीरिक मिलाप नहीं होता |जैसे कोई पुरुष किसी युवा कामिनी को देखकर उसके प्रति कामभाव से युक्त हो जाता है |वह स्त्री उसे प्राप्य नहीं है ,यह वह जानता है ,परन्तु वह अपनी कामना के वशीभूत कोकर मानसिक स्तर पर उससे कल्पना में शारीरिक रति करता है |कोई युवती किसी पुरुष के प्रति कामासक्त है ,परन्तु वह लज्जा या सामाजिक मर्यादा के कारण उससे शारीरिक रति नहीं कर सकती |तब वह कल्पना की शारीरिक रति करती है |ऐसी रति में दुसरे पक्ष की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती |पर यदि दोनों पक्ष ऐसी रति में एक ही समय में एक-दुसरे के प्रति मानसिक रति में निमग्न हों ,तो दोनों का रति सुख बढ़ जाता है और खिन्नता या उदासी या निस्तेजता का प्रकोप नहीं होता |स्वप्न दोष ,स्वप्नक्रीडा आदि ऐसी ही रति के परिणाम हैं |जब पुरुष या स्त्री किसी के प्रति कामासक्त हो मानसिक रति में निमग्न हो ,उसी समय दूसरा पक्ष अगर नफ़रत की भावना रखे तो सुख प्राप्ति में कमी आती है और बार बार मन भटकता है |यह उच्च स्तर की मानसिक तरंगों का विज्ञान है |

[6 ] ब्रह्म रति

========== एक दुसरे को आराध्य मानकर परम अलौकिक आनंद के लिए जब युवक-युवती आपस में किल्लोल करते हुए रति क्रिया करते हैं और रति क्रीडा की अवस्था में परमानंद की अनुभूति करते हैं ,तो उसे ब्रह्म रति कहते हैं |इस रति में प्रारम्भ में विशुद्ध चक्र की तरंगे उदात्त होती हैं ,फिर ये तरंगे मूलाधार की तरंगों से मादकता में आवेशित होती हैं और फिर इनके द्वारा की गयी धन-ऋण की रति में सहस्त्रार की तरंगों मर उद्दीपन होता है |इस प्रकार की रति सिद्ध पुरुष ही कर सकते हैं |नारी को भी इसके लिए सिद्ध साधक के शिष्यत्व में अभ्यास करना पड़ता है |यह रति ,रति की उच्च अवस्था होती है ,जिससे सहस्त्रार के उद्दीपन से उसके खुलने ,मूलाधार से सहस्त्रार तक एक साथ कम्पन और कुंडलिनी का चलायमान होना होता है |भैरवी साधना में भी यह उच्च अवस्था है ,यहाँ भाव ,प्रेम ,काम भावना सब कुछ तीब्रतम हो सहस्त्रार को कम्पित कर देता है |


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