Alaukik Shaktiyan

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हवन कुंड और हवन के नियम

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::::::::::::::::हवन कुंड और हवन के नियम :::::::::::::::::
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 हवन चाहे वैदिक हो या तांत्रिक उसके लिए हवन कुंड कि भूमि, वेदी का निर्माण एक
आवश्यक अंग होता है| कहा है , कुंड, वेदी और निमंत्रित देवी देवताओं कि तथा पूर्ण सज्जा कि रक्षा करता है, उसे मंडल कहा जाता है| यज्ञ कि भूमि का चुनाव बहुत जरूरी है| उत्तम भूमि नदियों के किनारे, संगम, देवालय, उद्यान, पर्वत, गुरु ग्रह और ईशान मैं बना हवन कुंड सर्वोत्तम माना गया है| फटी भूमि, केश युक्त और सर्प कि बाम्बी वाली भूमि वर्जित है| हवन कुंड मैं तीन सीढिया होती हैं|
इन सीढियो को मेखला
भी कहा जाता है|
सबसे ऊपर कि मेखला सफ़ेद [WHITE
]
मध्य कि मेखला लाल [RED]और नीचे कि मेखला काले [BLACK
]
रंग कि होती है|
इन तीन मेखलाओं मैं तीन देवताओं का निवास माना जाता है|
उपर विष्णु मध्य मैं ब्रह्मा तथा नीचे शिव का वस् होता है|
जब हम आहूतिया डालते हैं तो कुछ सामग्री बाहर गिर जाती है|
हवन के उपरांत उस सामग्री को कुछ लोग पुन:
हवन कुंड मैं डाल देते हैं,
मित्रों!
ऐसा कभी नहीं करना चाहिय|
कहा गया है ऊपर गिरी सामग्री को छोड़ कर शेष दो मेखलाओं पर गिरी हुई हवन सामग्री वरुण देवता का हिस्सा होती है,
इसलिये उसे वरुण देवता को अर्पित कर देना चाहिए अग्नि देवता को नहीं|
हाँ,
ऊपरकी मेखला पर गिरी सामग्री को पुन:
हवन कुंड मैं दल देना चाहये|
वैदिक प्रयोग के साथ ही साथ तंत्र मैं भी विभिन्न यंत्र प्रयोग मैं लाये जाते हैं|
उनमे से कुछ त्रिकोण होते हैं|
तंत्र मार्ग मैं त्रिकोण कुंड का प्रयोग होता है|
हवन कुंड अनेक प्रकार के होते हैं जैसे
वृत्ताकार , वर्गा कार,
त्रिकोण और अष्ट कोण आदि|
सभी प्रकार के यज्ञों,
मानव कल्याण से संबंधित सभी प्रकार के हवनों मृगी” मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए|
हवन का यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि किसी भी प्रकार से हवन सामग्री कुंड मैं डाल दी जाये|
हवन मैं शास्त्र आज्ञा,
आचार्य आज्ञा और गुरु आज्ञा का पालन करना जरूरी होता है|
आप इस बात पर विश्वास रखें मेरे करने से कुछ नहीं होगा गुरु करे सो होए|
हवन रोग नाशक,
ताप नाशक,
वातावरण को शुद्ध करने वाला यज्ञ से ओक्सिजन कि मात्रा बढ़ जाती है|
हमे यह ज्ञान अपने प्राचीन ग्रंथों और ऋषिओं से प्राप्त होता है |
आहुति के मान से मण्डपनिर्णय होने के पश्चात वेदिका
के बाहर तीन प्रकार से क्षेत्र का विभाग करके मध्यभाग में पूर्व आदि दिशाओं
को कल्पना
करे फिर आठों दिशाओं
में आठ दिशाओं के नाम इस प्रकार हैं
पूर्व अग्नि, दक्षिण, निर्ऋति, पश्चिम, वायव्य, उत्तर तथा ईशान

क्रमशःचतुरस्र, योनि अर्धचन्द्र, त्र्यस्र, वर्तुल, षडस्र, पङ्कज और अष्टास्रकुण्ड की स्थापना सुचारु रूप से करे तथा मध्य में आचार्य कुण्ड वृत्ताकार अथवा चतुरस्र बनाये पचास अथवा सौ आहुति देनी हो तो कुहनी से कनिष्ठा तक के माप का ( फुट इंच) कुण्ड बनाना, एक हजार आहुति में एक हस्तप्रमाण ( फुट इंच) का,
एक लक्ष आहुति में चार हाथ का ( फुट),
दस लक्ष आहुति में छः हाथ ( फुट) का तथा कोटि आहुति में हाथ का (१२ फुट) अथवा सोलह हाथ का कुण्ड बनाना चाहिये
भविष्योत्तर पुराण में पचास आहुति के लिये मुष्टिमात्र का भी र्निदेश है इस विषय में शारदातिलक, स्कन्दपुराण आदि का सामान्य मतभेद भी प्राप्त होता है कुण्ड के निर्माण में अङ्गभूत वात, कण्ठ, मेखला तथा नाभि का प्रमाण
भी आहुति एवं कुण्ड की आकृति के आधार से निश्चिम किये जाते हैं इस कार्य में न्यूनाधिकार होने से रोगशोक आदि विघ्न आते हैं अतः केवल सुन्दरता पर ही दृष्टि रख कर शिल्पी के साथ पूर्ण पिरश्रम से शास्त्रानुसार कुण्ड तैयार करवाना चाहिये यदि कुण्ड करने का सार्मथ्य हो, तो सामान्य हवनादि में विद्वान चार अंगुल ऊँचा, अथवा एक अंगुल ऊँचा एक हाथ लम्बाचौड़ा सुवर्णाकार पीली मिट्टी
अथवा वालूरेती का सुन्दर स्थण्डिल बनाये इसके अतिरिक्त ताम्र के और पीतल के भी यथेच्छ कुण्ड बाजार में प्राप्त होते हैं उनमें प्रायः
ऊपर मुख चौड़ा होता है और नीचे क्रमशः
छोटा होता है वह भी शास्त्र की दृष्टि से ग्राह्य है नित्य हवनबलिवैश्वदेव आदि के लिए अनेक विद्वान इन्हें उपयोग में लेते हैं |………………………………………………………..हरहर महादेव 



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